भारत के आर्मेनिया के साथ रिश्ते?
सुरक्षा और सहयोग आधारित संगठन (OSCE) के हिसाब से शांति बहाली की हिमायत करने वाले भारत के रिश्ते आर्मेनिया के साथ खासे दिलचस्प रहे हैं. इसी साल, मार्च में भारत ने आर्मेनिया को हथियार सप्लाई करने के लिए रूस और पोलैंड को मात देकर 4 करोड़ डॉलर की डील की. इससे पहले भी आर्मेनिया के साथ भारत के रिश्ते आपसी सहयोग के रह चुके हैं.
1991 में, जब सोवियत संघ टूटा तब आर्मेनिया को समर्थन दिया और वहां दूतावास की सेवाओं का विस्तार मॉस्को से किया. विदेश मंत्रालय के मुताबिक तबसे अब तक आर्मेनिया के राष्ट्रपति तीन बार (1995, 2003 और 2017) भारत यात्रा पर आ चुके हैं और विदेश मंत्री भी (2000, 2006 और 2010). आर्मेनिया के बाद अज़रबैजान के साथ भारत के रिश्ते क्या बताते हैं?
अज़रबैजान के साथ रिश्तों का अर्थ?
संबंध दोस्ताना ही रहे हैं, लेकिन इनमें ताज़गी नहीं है. भारत के कला प्रतिनिधि रबींद्रनाथ टैगोर, विचार प्रतिनिधि और पूर्व राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन और पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अज़रबैजान की यात्राएं की थीं, लेकिन यह तब की बात है जब यह मुल्क सोवियत समाजवादी गणतंत्र हुआ करता था. अज़रबैजान जबसे सोवियत संघ से अलग हुआ है, तबसे यानी करीब 20 सालों से कोई उच्च स्तरीय मेलजोल नहीं रहा है
दोनों देशों से जुड़ी अंतर्राष्ट्रीय राजनीति?
दूसरी स्थिति यह है कि अज़रबैजान पहले कश्मीर मुद्दे पर तुर्की की तरह ही पाकिस्तान के सुर में सुर मिला चुका है. भारत के अपने संबंध खास तरोताज़ा नहीं है और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में अज़रबैजान को पाकिस्तान की तरफ रुख कर लेना, ये तमाम इशारे हैं कि भारत आर्मेनिया के साथ चल रहे अज़रबैजान के विवाद में किसका पक्ष ले सकता है. नहीं रहा है
आर्मीनिया और अज़रबैजान, नागोर्नो-काराबाख को लेकर क्यों लड़ रहे हैं
दशकों पहले से जारी इस विवाद को लेकर एक बार फिर से छिड़ी लड़ाई में सोमवार को दर्जनों लोगों के मारे जाने की ख़बर है.
इस विवाद के केंद्र में नागोर्नो-काराबाख का पहाड़ी इलाक़ा है जिसे अज़रबैजान अपना कहता है, हालांकि 1994 में ख़त्म हुई लड़ाई के बाद से इस इलाक़े पर आर्मीनिया का कब्ज़ा है.
1980 के दशक से अंत से 1990 के दशक तक चले युद्ध के दौरान 30 हज़ार से अधिक लोगों को मार डाल गया और 10 लाख से अधिक लोग विस्थापित हुए थे.
उस दौरान अलगावादी ताक़तों ने नागोर्नो-काराबाख के कुछ इलाक़ों पर कब्ज़ा जमा लिया, हालांकि 1994 में युद्धविराम के बाद भी यहां गतिरोध जारी है
पूर्व सोवियत संघ का हिस्सा रह चुके आर्मीनिया और अज़रबैजान नागोर्नो-काराबाख के इलाक़े को लेकर 1980 के दशक में और 1990 के दशक के शुरूआती दौर में संघर्ष कर चुके हैं.
दोनों ने युद्धविराम की घोषणा भी की लेकिन सही मायनों में शांति समझौते पर दोनों कभी सहमत नहीं हो पाए.
दक्षिणपूर्वी यूरोप में पड़ने वाली कॉकेशस के इलाक़े की पहाड़ियां रणनीतिक तौर पर बेहद अहम मानी जाती हैं. सदियों से इलाक़े की मुसलमान और ईसाई ताकतें इन पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहती रही हैं.
1920 के दशक में जब सोवियत संघ बना तो अभी के ये दोनों देश - आर्मीनिया और अज़रबैज़ान - उसका हिस्सा बन गए. ये सोवियत गणतंत्र कहलाते थे.
नागोर्नो-काराबाख की अधिकतर आबादी आर्मीनियाई है लेकिन सोवियत अधिकारियों ने उसे अज़रबैजान के हाथों सौंप दिया.
इसके बाद दशकों तक नागोर्नो-काराबाख के लोगों ने कई बार ये इलाक़ा आर्मीनिया को सौंपने की अपील की.
लेकिन असल विवाद 1980 के दशक में शुरू हुआ जब सोवियत संघ का विघटन शुरू हुआ और नागोर्नो-काराबाख की संसद ने आधिकारिक तौर पर खुद को आर्मीनिया का हिस्सा बनाने के लिए वोट किया
ये खबरे इंटरनेट से जुटाई गयी है, जिसका विश्लेषण करने का प्रयास मेरे द्वारा किया गया हैं, कई पाकिस्तान के लोगो के द्वारा इस खबर को कश्मीर के हल के तौर पर भी देखा जा रहा है जिसमे वो कहते हुए दिखते है कि उन्हें भी भारत से इसी तरह लडाई करके कश्मीर को ले लेना चाहिए, परन्तु वो ये भूल रहे है कि सन् 1948,1971,1964, और कारगिल 1999 मे उन्हे भारत से मुह की खानी पड़ी थी।
आगे जारी रहेगा...
गौरव्